Celebrity Writer-बागपन की बारूदी कलम/संवेदना की स्याही से..

“मैं बाग़ी” की कलम से..

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नोट परिवर्तन के  साथ सोशल मीडिया पर मजाक, आखिर हम किधर जा रहे हैं ? 

प्रो.(डॉ.) डी. पी. शर्माधौलपुरी“  14/11/2016 

आज भृष्टाचार पर नकेल एवं काले धन की निकासी अथवा सियासी मौद्रिक खेल तो सिर्फ सरकार अथवा अर्थशास्त्री ही समझ सकते हैं कि इसके दूरगामी परिणाम क्या और कैसे होंगे लेकिन सोशल मीडिया को ” गैर-सोशल “अफवाई औजार आज जरूर मिल गया है / हर कोई गलत या सही अथवा जायज या  गैर जायज का भेद किये बिना न्यूज़ की कतरन अथवा तोड़े मरोड़े तथ्यों को बिना सोचे, समझे  इधर उधर भेजने और अफवाह फ़ैलाने में अपना एवं सोशल मीडिया पर अपनी अति सक्रियता एवं राष्ट्रीय मौद्रिक नीति का जानकार होने का दम  भर रहा है / ये सही है कि हर भारतीय को वैचारिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान प्रदत्त है परंतु कहीं हम इस नासमझी एवं अतिउत्साह के जूनून में देश को अथवा देश की अर्थ नीति को जो कि किसी तानाशाह  ने नहीं वल्कि चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार के प्रतिनिधियों ने बहुमत एवं लोककल्याण की भावना के साथ  बनाई एवं लागू  की है, को नुक्सान तो नहीं पहुंचा रहे?

इतनी भी क्या जल्दवाजी है कि एक राष्ट्रीय महत्व के सरकारी निर्णय को हम बिना सोचे समझे मजाक एवं गैर जरुरी करार देकर कुछ भी हिंदी अथवा अंग्रेजी में, अखबारी भाषा के हूबहू फर्जी खबर बनाकर अथवा सरकारी आदेश के रूप में कंप्यूटरीकृत क्लिप बना उस पर भारतीय गणराज्य चिन्हों को चिपकाकर सोशल  मीडिया अथवा  इन्टरनेट के माध्यम से वायरल  कर दें / जरा  सोचिये कहीं आप जाने अथवा अनजाने में कोई राष्ट्रीय अपराध तो नहीं कर रहे ? ज्ञात रहे कि आपके वैचारिक स्वतंत्रता के अधिकार के साथ साथ कुछ कर्त्तव्य भी जुड़े हुए हैं/  सन २०१५ में सुप्रीम कोर्ट ने “आई टी एक्ट २०००” की धारा  ६६ A  के पुलिस द्वारा दुरुपयोग को ध्यान में रखते हुए यद्यपि वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्र के खिलाफ असंवैधानिक करा देते हुए इस पर रोक लगा दी थी/ आज उसके दुष्परिणाम सुप्रीम कोर्ट के फैसले एवं संविधान के विपरीत  पुनः  देखने को मिल रहे हैं / लोग सभ्य एवं संवैधानिक भावनाओं के विपरीत कुछ भी अनर्गल , असामाजिक, भाषायी अशिष्टता का प्रदर्शन करते हुए समय एवं ऊर्जा के साथ साथ धार्मिक एवं सामाजिक वैमनस्य फैला रहे हैं  जो कि पुनः एक सवालिया मुद्दा खड़ा करता है कि  कहीं ये साइड इफेक्ट्स हमारे एक और संवैधानिक ताने वाने  अर्थात धार्मिक सहिष्णुता एवं सामाजिक विविधिता को छतिग्रस्त तो नहीं कर रहे ?  कभी कभी तो सोशल मीडिया एवं इन्टरनेट पर राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ से ये भावना मजबूत हो चली है कि आई टी एक्ट २००० की धारा ६६ A का पुनरावलोकन किया जाये / अव चाहे ये  सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर हो अथवा सरकार एवं संसद के स्तर पर /  भारतीय साइबर कानून की धारा ६७ के तहत दोषी पाए जाने पर ५ साल की सजा अथवा १० लाख रूपया का जुरमाना  करने का प्रावधान है / ये कानून भी नैतिक मानदंडों एवं उनके दुरूपयोग के खिलाफ है / साइबर कानून. के तहत राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों, किसी के जीवन अथवा पद की गरिमा के विपरीत अफवाह फैलाना अथवा किसी खबर न्यूज़ अथवा तथ्य को तोड़ मरोड़कर पेश करना अथवा उसे इरादतन एवं गैर इरादतन तरीके से फैलाना इत्यादि विभिन्न धाराओं के तहत कानूनन जुर्म है/ आज कोई भी कितना भी आईटी  का विशेषज्ञ अथवा  जानकर क्यों न हो/ आप तकनीकी गोपनीयता वाले कितने भी मापदंड ( एन्क्रिप्शन टेक्नोलॉजी यथा ६४ बिट या १२८ बिट विद एन्ड टू एन्ड एन्क्रिप्शन) क्यों न अपना रहे हों लेकिन कानून कानून होता है और अपराध की दुनिया कुछ न कुछ कहीं न कहीं सबूत जरूर छोड़ती है/  और यही सोशल मीडिया पर सबूत किसी के लिए दण्ड का सबब न बन जाएँ उससे पहले हमें संयमित ब्यवहार करने की आवश्यक्ता है/

आज नोट बदली से देश की राजनैतिक फिजां में एक भूचाल सा आ गया है/ जरुरी भी है क्योंकि एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र मैं विचारधाराओं की विविधताओं का होना स्वाभाविक है /  परंतु विपक्ष का मतलब ये कतई नहीं होता कि ” सरकार द्वारा घोषित किसी भी योजना स्वरूपी पेड़ जैसे नीम के पेड़ को तर्कों, कुतकों अथवा वितर्कों  के माध्यम से बबूल का पेड़ घोषित करने की हर संभव चेस्टा की जाये/ अच्छी योजनाओं की प्रशंसा कर मतभेद भुलाकर सकारात्मक विपक्ष का परिचय देना चाहिए/ बिपक्ष का मतलब ये भी नहीं होना चाहिए कि ( अभी हाल हैं व्हाट्सएप्प पर वायरल एक  विडियो के सन्दर्भ में) पहले नोट को हलके रंगीन पानी में डालो, फिर सुखाकर मीडिया को बुलाकर तौलिये पर नोट के रंग छूटने का झूठा सबूत देकर मीडिया में अफवाह फैला दो/ अतीव सर्वदा वर्जयेत – विशेष रूप से राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के साथ ऐसा न हो तभी सोशल मीडिया के सदुपयोग की सार्थकता है/

आज राजनैतिक आरोप प्रत्यारोपों के दौर में एक अहम् बात सोचने की  ये है कि बैंक से नोट  बदली के लिए लाइन में गरीब एवं मध्यम  वर्गीय लोग परेशान हैं/ सत्य भी है एवं तथ्य भी / ये भी अफवाह है कि कोई भी अमीर व्यक्ति लाइन में नहीं लगा, शायद सरकार ने उनको लाभ देने का इंतजाम पहले से कर दिया / चलो ये तथ्य भी सत्य मालूम होता है थोड़ी देर के लिए  / परंतु यहाँ सबसे अहम् बात सोचने की ये है कि देश में कितने लोग अमीर हैं जिनको हम लाइन में देखना चाहते हैं/ क्या वे करोड़ों में हैं जो लाइन में सिर्फ वे ही दिखेंगे सूट बूट में/ क्या उनके चेहरे पर अमीरी का सरकारी अथवा गैर सरकारी स्टाम्प अथवा मुख़ौटा होगा जिससे हम उनको पहचान कर अपनी वैचारिक विश्लेषण की भाषा एवं तथ्यों को बदल लेंगे /  ये भी तो हो सकता है कि काले धन वाले अभी वक्त की फिजां का अध्ययन कर रहे हों और अपनी व्यूह रचना गढ़ने एवं लागू करने के बहुआयामी तरीकों पर विचार मंथन कर रहे हों? वो कोई आम सोच वाले नॉसिखिये इंसान तो नहीं वल्कि काली मौद्रिक दुनिया के वो मजे हुए खिलाड़ी भी तो हो सकते हैं जो अपने कर्मचारियों, कारिंदों, मित्रों, रिश्तेदारों एवं भोले भाले गरीब एवं मजदूर लोगों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए ” हिस्सा आधारित” फॉर्मूले पर करने के गोपनीय तरीके पर विचार मंथन में लगे हों/  कहते हैं कि ” दौलत जब दुनियां में आती है तो उसके चेहरे से पैदाइशी खून टपकता है परंतु दौलत से जब पूँजी का जन्म होता है तो उसके जिस्म के हर हिस्से से लहू टपकता है” / ये भी तो आज एक मंजर ए हकीकत है / शायद गरीब एवं मजदूर के हाथ / थाली से छीनीं हुयी दौलत /रोटी हो सकता है कल अपने क़ातिलाना स्वरुप को त्याग कर गरीब एवं मज़दूर के हाथ में स्वेच्छा अथवा मजबूरी में ही सही बाहर आकर बाजार में निकले और कल्याण एवं अपराध बोध की स्वीकारोक्ति के साथ गरीब मज़दूर के आँसूं पोंछते हुए ईमानदारी एवं लोक कल्याण का नवीन इतिहास लिखदे/ सरकारों को भी चाहिए कि  अपराध बोध से बाहर निकलने वालों को सकारात्मक एवं सुधारात्मक सोच के साथ उचित परंतु कल्याणकारी भावना के स्वरुप काम कर उन्हें प्रायश्चित्त करने मौका दे /

आज सोशल मीडिया पर कभी नकली नोटों की अफवाह तो कभी गोपनीयता को  भंग करने की साजिश/ जनता सब जानती है / ये सार्वभौमिक सत्य कथन है कि कोई भी नवीन योजना कुछ तो तकलीफ देगी यदि उसके दूरगामी परिणाम अच्छे हुए तो ” अंत भला तो सब भला” वर्ना सरकार को उखाड़ फैंकने के लोकतान्त्रिक हथियार यानी वोट आपके हाथ आपके साथ / कीजिये उपयोग और दिखाईये वोट की ताकत / निःसंदेह कुछ तो अच्छा सोचा होगा आम आदमी के लिए/ वर्ना आम गरीब एवं मजदूर मध्यम वर्गीय तबका तो आज भी  वर्ल्ड बैंक को सर्वे सपोर्ट देने वाली एजेंसी ” लूँइज्ज़र मॉन्स्टर बोर्ड वेज इंडेक्स ” की रिपोर्ट के अनुसार भारत में व्हाइट कॉलर नौकर पेशा  लोगों की स्तिथि एशिया मैं  चीन एवं पाकिस्तान की तुलना में सर्वोत्तम है यानी १७२ रूपया प्रति घंटे है जो की चीन की ९६ एवं पाकिस्तान की ८१ रूपया की तुलना में काफी अधिक है/ ज्ञात रहे की इसी तबके का एक हिस्सा आज सातवें वेतन आयोग के फल खाते हुये शायद ये बात क्यों भूल रहा है की गरीब एवं मजदूर के लिए कोई वेतन आयोग नहीं और सातवें वेतन आयोग के साइड इफेक्ट्स सर्वाधिक उसी के जेब  एवं पेट पर चोट कर रहे हैं/  कुछ तो सब्र रखें / एक बार इसको भी देख लें/  अभी हाल में यूनाइटेड नेशन्स एवं  इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार मजदूरों के लिए ७२ देशों की सूची में भारत का स्थान ६९ वाँ यानी सिर्फ तीन देश पाकिस्तान, फिलीपीन्स एवं ताजकिस्तान के मजदूर ही हमारे मजदूर समुदाय से ज्यादा गरीब हैं/  ये तबका आज भी इस आस में जी रहा है की कालाधन शायद सफ़ेद बनकर उसकी थाली को एक दिन आबाद करदे/ उसके पास अनर्गल बातों एवं स्मार्ट फ़ोन पर बवंडर फैलने का वक्त  नहीं/ आज सरकार उसके तंत्र एवं देश के जन समुदाय को संयम से काम लेने की जरुरत है / ताकि योजना को लोकहित से परे मजाक न बनना पड़े/ लोकतान्त्रिक देश के नागरिकों के लिए भी कुछ मर्यादाएं होनी चाहिए और उनका पालन  भी/


संवेदना की स्याही से ……..      

क्यों मजबूर हुआ मजदूर ? 

प्रो.(डॉ.) डी. पी. शर्माधौलपुरी“ 30/04/2016   

Published in Rajasthan Patrika on 30/04/2016 Editorial Page, 
A National Newspaper with largest network in Rajasthan
http://epaper.patrika.com/794129/Rajasthan-Patrika-Jaipur/30-04-2016#page/12/1

विकसित अथवा विकाशसील देश आज धरती से  अंतरिक्ष  एवम मंगल ग्रह तक अपनी छलांग लगाने के लिए आतुर हैं, इस बात से बेखबर कि आज भी हमारे आस पास लाखों ऐसे गरीब मजदूर यथा बच्चे, बृद्ध, विकलांग,महिला एवं पुरुष रह रहे हैं जिन्हें दिन भर की मजदूरी के बाद भी दो वक़्त  का भोजन भी मयस्सर नहीं होता, मानवाधिकार तो बहुत दूर की बात है उनके लिए  /

आर्थिक दृस्टि से समृद्ध लोकतान्त्रिक देशों के सभ्य समाज में आज भी मजदूर शब्द सुनते ही दिमाग में दबे कुचले, पिछड़े, गरीब एवं आर्थिक रूप से बदहाल जीवन यापन करने वाले लोगों की एक अजीब सी तस्वीर उभर कर सामने आती है / आखिर अन्याय एवम असमानता का ऐसा मंजर क्यों और कब तक ? दुनियां की प्रगति का पहिया आखिर कब तक मज़बूरी में लिपटे मजदूर के भरपेट भोजन एवं तन पर अदद कपडे  के सपनों को कुचलता रहेगा? सामाजिक सुरक्षा, न्याय एवं जीने का अधिकार तो किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार एवं राष्ट्र का प्रथम कानूनी उद्देश्य होना चाहिए/ आज यदि हम अपने देश की बात करें तो सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयास इस दिशा में कितने कारगर साबित हुए और देश के मजबूर मजदूर का जीवन प्रगति की राह में कितना सुधरा, हम सभी के लिए एक अति विचारणीय प्रश्न है /

सन् २०१२ के आंकड़ों के अनुसार भारत में मजदूरों की संख्या लगभग 487 मिलियन थी जिनमें ९४ प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के मजदूर थे / भारत में मजदूरों की ये तश्वीर दुनियां में चीन के बाद दूसरा स्थान रखती है। सबसे हैरानी की बात तो ये है कि पिछले दो दशक से सत्तासीन सरकारें अनेकों योजनाएं लायी जैसे भोजन का अधिकार,  काम का अधिकार, नरेगा, एवं अन्य परन्तु हर योजना में एक बात आम थी कि मजदूरों को आर्थिक लाभ तो हुआ, उनकी जेब में कुछ सरकारी खजाने से पैसे तो पहुंचे परन्तु उन्हें स्वावलंबी बनाने एवं राष्ट्र हितोपयोगी कार्य के लिए नहीं / दिल्ली में बनी  ये योजनाएं मजदूर के गांव तक पहुँचते पहुँचते अपना कल्याणकारी स्वरूप खो बैठीं और महज सरकारी खजाने से  पैसे  के उपभोग का जरिया मात्र बनकर रह गयीं / उनकी दूरगामी समृद्धि के प्रयास सिर्फ कागजों की शोभा बन कर ही रह गए /एक रिपोर्ट के अनुसार नरेगा में जो पैसा सरकारी खजाने से गरीब या मजदूर को मिला उसके एवज में कितना काम राष्ट्र निर्माण के लिए हुआ और उसकी जमीनी हकीकत क्या है ये आज ज्वलंत सवाल इसकी सफलता के प्रमाणपत्र पर काले धब्बे के रूप में अंकित हैं ? और सरकारें वाहवाही लूटने के लिए आपस में लड़ रहीं हैं /  इसके विपरीत अभी हाल में घोषित नवीन ‘जन धन’ योजना से एक लाभ तो होने की सम्भावना है कि सरकार एवं मजदूर के बीच बिचोलिये की भूमिका जरूर काम हो जाएगी जो कि भ्रस्टाचार की सबसे बड़ी कड़ी है और सरकारी पैसा सीधे लाभार्थी के अकाउंट में पहुँच जायेगा  /

आज दुनियां दो ध्रुवीय हो चुकी है/ एक वर्ग शोषक का है तो दूसरा वर्ग शोषित का/ लोक कल्याणकारी सरकारें इनमें संतुलन स्थापित करने में शुरू से आज तक लगी हुयी हैं/ दोनों वर्गों की असंतुलित भागीदारी और यही बंटवारा अनेकों

रूपों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोह एवं सामाजिक अथवा राष्ट्रीय अशांति का कारण बनते रहे हैं/ संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र एजेंसी “अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन” के अनुसार दुनियां में सार्वभौमिक शांति तभी स्थापित हो सकती है

जब सामाजिक न्याय की अवधारणा को सही मायने में लागू किया जाये / एक अमेरिकी शोध अध्ययन के अनुसार अभी हाल में उत्तर अफ्रीकी देशों, खाड़ी देशों में जो सिविल वार देखने को मिला उसके पीछे वो मजदूर एवं वेरोजगार थे जिनके हाथ में काम एवं पेट में अनाज नहीं था/ सरकारों एवं सत्ताशीन शासकों  ने उनको कुचलने का प्रयास किया / ऐसी क्रांति के प्रयास सफल अथवा असफल हुए ये अलग बात है परन्तु शोषक एवं शोषित समाज की खाई को और गहरा कर गए जिसके दूरगामी परिणाम सामने आना बाकी है / राजनैतिक परिवर्तन एवं  सामाजिक न्याय के लिए मिश्र , लीबिया, ट्यूनीशिया एवं अन्य देशों के वेरोजगार युवा, मजदूरों ने आंदोलन का  साथ देकर अपने ही देश एवं समाज को अशांति एवं विद्रोह की आग में झोंक दिया /

अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं भविष्य में ऐसा न हो इसलिए सामाजिक न्याय की भूमंडलीकृत अवधारणा को स्थापित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का प्राथमिक उद्देश्य मेंबर देशों जिनमें भारत भी शामिल है, युवा महिला एवं पुरुषों के लिए रोजगार के ऐसे अवसर तैयार करने में मदद करना है जो २००८ में स्थापित विशेष मानकों पूरा करते हों / बाद  में २०१० के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन प्रस्ताव में रोजगार पॉलिसी एवं सामाजिक न्याय को फेयर भूमंडलीकरण के लिए  लागू किया गया/ अगर गहराई एवं ईमानदारी से देखें तो अभी तक किसी भी केंद्र सरकार जिसमें वर्तमान सरकार भी शामिल है, कुछ प्रयासों को छोडकर कोई भी ऐसा महत्वपूर्ण एवं ठोस कदम नहीं उठाया जिससे इन प्रस्तावों के अनुसार भारत में मजदूरों के रोजगार, कार्य सुरक्षा, बीमा, स्किल विकास एवं माइक्रो फाइनेंस जैसे मुद्दों को सही एवं प्रभावी रूप से लागू किया जा सके/ अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने २०१२ में एक प्रोग्राम की शुरुआत की थी जिसमें विकाशसील देशों जिनमें प्रमुख रूप से भारत, चीन एवं पाकिस्तान के साथ साथ अफ्रीकी देशों में ऐसे संस्थानों का अध्ययन करना शामिल था जहाँ पर मजदूरों की हालत में अंतर्राष्ट्रीय सपोर्ट के बाद भी विशेष परिवर्तन नहीं आया / मजदूर कल्याण की दिशा में वर्तमान सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर २०१४  में  “पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमदेव जयते ” कार्यक्रम की घोषणा की थी / इसी के साथ ” श्रम सुविधा ” नामक यूनिफाइड लेबर पोर्टल एवं प्रोविडेंड फण्ड के लिए यूनिवर्सल अकाउंट नंबर का भी उद्घाटन किया गया/ शुरुआती दौर में ऐसा लगा कि देश के चार करोड़ मजदूर “यूनिक लेबर आइडेंटिफिकेशन नंबर (लिन)” से निश्चित रूप से लाभान्वित होंगे /

आज के तकनीक क्रांति युग में सूचना तकनीकी को गरीबी  उन्मूलन के लिए  इस्तेमाल किया जा रहा है / लेकिन टेक्नोलॉजी प्रेमी प्रधानमंत्री को ये भी समझना चाहिए कि जिस मजदूर को इतनी मजदूरी नहीं मिलती हो कि वो अपना गुजारा कर पाए तब तक उसके लिए ये सारे प्रयास हाई-टेक शगूफे ही कहलाएंगे /

भाषाई लोकलाइजेशन की बात करने वाली सरकार आज भी चीन, कोरिया एवं रशिया जैसे देशों से बहुत दूर है जहाँ हर सरकारी कामकाज राष्ट्रीय भाषा में होता है / अपनी भाषा में काम करने के बावजूद ये देश कहाँ हैं और हम कहाँ? जिस “सुविधा पोर्टल ” की भाषा अंग्रेजी आज भी गुलामी की दास्ताँ सुना रही हो तब सवाल उठता है कि उस देश का गरीब एवं मजदूर कैसे एवं किस इलेकट्रॉनिक गैज़ेट से सेवा हासिल करेगा ? बेसिक शिक्षा एवं तकनीकी स्किल से दूर आज भी मजदूर पुराने परंपरागत तरीके अपना कर मजदूरी के लिए मजबूर है / सवाल उठता है कि क्या सरकार ने इन हाई-टेक सुविधाओं के उपयोग के लिए कोई ठोस आधार भूत योजना बनायी और लागू की ? शायद नहीं / सिर्फ सरकारी वेबसाइट्स पर घोषणाओं के कर्मकांडों को लटका कर लोक कल्याणकारी सरकार की परिभाषा गढ़ना विकास एवं कल्याण नहीं है/ यही अनेकानेक घोषणाएं समस्यांओं का मजमा बनकर विकास के मार्ग अवरुद्ध कर रहीं  हैं/ याद रहे कि  तकनीक देना उतना जरूरी नहीं जितना कि उसके उपयोग को सुनिश्चित करना एवं उससे जुडी आधारभूत शिक्षा, प्रशिक्षण का प्रचार एवं प्रसार करना वर्ना ये तकनीकें सफ़ेद हाथी सावित होंगे भारत जैसे विकासशील देश के लिए / मजदूर को आज वेबसाइट, सूचना तकनीकी एवं सरकारी कार्ड की जरुरत तो है परन्तु क्या मजदूर एवं उसके कार्य को सरल सुगम बनाने एवं सुरक्षित करने वाली तकनीक पर भी कोई योजना बनायी गयी? ऐसे कितने मजदूर हैं भारत में जो कार्य स्थल पर सुरक्षा कवच यानी हेलमेट, विशेष उपकरण एवं सिग्नल सूचक यंत्रों का इस्तेमाल करते हैं एवं सरकारें इसके लिए उपयुक्त कानून के माध्यम से मजदूर नियोजकों को वाध्य करती हैं ?

हाई-टेक होते सरकार एवं सरकारी दफ्तरों, अफसरों के चैम्बर्स एवं कंपनियों के कार्यालयों की चमक दमक से परे आज गरीब मजदूर की सुरक्षा एवं मूलभूत सुविधा का ख्याल कब रखा जायेगा, कानून कब बनाए जायेंगे और उनको शख्ती से लागू कब किया जायेगा /

आज भोजन का अधिकार कानून तो है लेकिन फिर भी वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार सैकड़ों लोग भारत में भूख से क्यों मर जाते हैं ? आज संवेदनशीलता का आलम ये है कि अगर कोई गरीब किसान मजदूर भूख से मर भी जाये तो उसके लिए जांच समिति बना दी जाती है / जिसकी विसरा रिपोर्ट दस साल बाद इस बात का खुलासा करती है कि अमुक किसान मजदूर भूख से नहीं मरा क्योंकि उसकी पेट के  धोबन की लेबोरेटरी जाँच में अनाज के लक्षण पाये गए हैं/ क्या यही हैं मजदूर कल्याण ?

वर्ल्ड रिपोर्ट के अनुसार हम मुगालते में हैं कि सन २०२० तक विश्व को अधिकाधिक लेबर की जरूरतें हिंदुस्तान पूरी करेगा / क्या हम भारत को कृषि आधारित देश से बदलकर मजदूर आधारित देश बनाना चाहते हैं ? बैसे ठीक भी है क्योंकि आज हजारों इंजीनियरिंग कॉलेजेस, डिप्लोमा कॉलेजेस सिर्फ दिखावटी लेबर ही तो पैदा कर रहे हैं ; स्किल्ड इंजीनियर या तकनीशियन नहीं / नास्कॉम की ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली ही नहीं वल्कि हमें हकीकत का आयना दिखाने वाली है कि कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे ये तकनीकी संस्थान बेरोजगार अर्द्ध स्किल्ड लेबर पैदा करने वाली फैक्टरियाँ  हीं तो हैं /

तकनीक से ही दुनियां को प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ाया जा सकता है / परन्तु  वर्ल्ड बैंक के नवीन आंकड़ों के अनुसार केवल ५३ प्रतिशत ही भारतीय युवक बैंक खाता धारी हैं जो कि चीन की ७९ प्रतिशत की तुलना में काफी कम है/ इस सन्दर्भ में सरकार की “जन धन” योजना लाखों नागरिकों जिनमें मजदूर एवं बेरोजगार भी शामिल हैं के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है /

भारतीय अर्थ व्यबस्था को “रेडिकल ट्रांसफॉर्मेशन” की तरफ ले जाने वाली सरकार ये क्यों भूल रही है कि उसे विरासत में ऐसी जमीन मिली है जहाँ २००४ से २०१४ तक आर्थिक सुधारों के बजाय नयी नयी कल्याणकारी योजनाओं को पैदा कर उनके गीत गाने के कार्यक्रम तो हुए जैसे रोजगार का अधिकार, भोजन का अधिकार एवम शिक्षा का अधिकार बगेरा बगेरा / एक सिद्धांत के अनुसार योजनाएं कभी भी ख़राब नहीं होतीं क्योंकि वे कल्याण के बनाई जाती हैं / सिर्फ अच्छा एवं बुरा स्वरूप उनको लागू करने वालों एवं लाभ लेने वालों की नीयत पर निर्भर करता है / कहते हैं कि “दौलत जब दुनियां में आती है तो उसके चेहरे से पैदायशी खून टपकता है और जब दौलत से पूंजी का जन्म होता है तो उसके जिश्म के हर हिस्से से लहू टपकता है”/ पूंजीवादी लोग आज यही तो नहीं कर रहे ? किस तरह कानून का फायदा उठाते हैं ये लोग अभी हाल में भारत में देखने को मिला / भारत सरकार ने २०१५ में चाइल्ड लेबर ( प्रोहिबिशन एंड रेगुलेशन ) सुधार विधेयक २०१२ को पारित किया/ इस कानून के अनुसार स्कूल टाइम के आलावा १४ साल से १८ साल के बच्चों को पारिवारिक व्यवसाय में छूट देने का प्रावधान किया  गया / कानून को तोड़कर राश्ता निकालने के पेशेबर लोगों ने इसमें भी रास्ते  निकाल लिए / आज भी जयपुर जैसे राजधानी क्षेत्र में बाल मजदूरी बड़ी समस्या बनी हुयी है / देश के एक पेशेबर वकील की संवेदनहीनता देखिये कि उसने मुवक्किल को बचाने के लिए पटाखा, मांजा बनाने वाले व्यवसाय को अपने तर्कों से गैर नुकसानदेह धंधा साबित कर दिया/

अभी हाल में वर्तमान सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहाकार अरविन्द सुब्रमण्यम जो कि अंतर्राष्ट्रीय फंड्स के इकोनॉमिस्ट रहे हैं ने नया जुमला सरकार को दिया है ” इंक्रेमेंटलिस्म” / उनके अनुसार देश में बिज़नेस बढ़ाने एवम इन्वेस्टमेंट को आकर्षित करने के लिए लेबर कानून को सरल करने की आवश्यक्ता है / उनकी सोच एवं जनकोव् व रमल्हो की अध्ययन रिपोर्ट जिनमें भारत भी शामिल है, इस बात का समर्थन करती है कि कठोर रोजगार कानून के कारण देश में असंगठित क्षेत्र बढ़ा है और जिससे बेरोजगारी बड़ी है / रिपोर्ट में कहा गया है कि  कठोर श्रम कानून के कारण भी देश में प्रति व्यक्ति आय कमजोर हुयी है/ इन हालातों में सवाल उठता है कि देश के बड़े बड़े सलाहकार क्या जमीनी हकीकत के अनुसार कोई सफल प्रयोग कर पाएंगे जिससे देश का गरीब मजदूर बेरोजगार आर्थिक सुधारों का लाभ लेकर प्रगति की राह में आगे बढ़ पाएगा या फिर पुरानी योजनाएं नए पैक में साबित होगी/ आज गहन सोच एवं मंथन के बाद योजनाएं बनाने एवं उनकी क्रियान्विति सुनिश्चित करने की  आवश्यकता है न कि रोज नित नयी घोषणाओं के कर्मकांड की /